संकट में सकारात्मकता का उजाला यहीं से फूटता है ,संभावनाओं के नए क्षितिज बनते हैं
देश के जाने-माने शायर मदन मोहन दानिश अपनी कलम से बयां कर रहे हैं कि कोरोना काल के इस मुश्किल समय में हमें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, लोग इन सभी कठिनाईओं में भी अपना कर्म नहीं भूले और वह है सेवा धर्म। आलेख पढ़ें और आत्मसात करें।
पूरी दुनिया इस वक्त जिस मुश्किल दौर से गुजर रही है उसकी वजह से इंसानी समाज के सामने नई- नई तरह की चुनौतियों पेश आ रही हैं , मनुष्य की स्वाभाविकता जीवन के जिस आह्लाद और खुलेपन में थी वो धीरे-धीरे एक अजीब तरह के एकाकीपन और अवसाद से घिरने लगी है। महामारी के इस दौर में सोशल डिस्टेंसिंग एक महत्वपूर्ण और जरूरी लफ्ज है और ये हमारे लिए समय की सबसे बड़ी जरूरत भी है, लेकिन दूसरी तरफ इंसान और इंसान के बीच बनाई गई ये दूरी और इस दूरी के साथ-साथ तमाम दूसरे अवरोधों के कारण हमारी संवेदनाएं संकुचित होने लगीं। लगातार लॉकडाउन की स्थितियों ने भी एक- दूसरे से मिलने को नामुमकिन बनाया । लेकिन इन सबके बावजूद लोग उठे और मजहब और मान्यताओं की तमाम दीवारों को तोड़ कर एक दूसरे की हर तरह की मदद करने लगे। फिर वो चाहे भोजन की,दवाइयों की,ऑक्सिजन की मदद हो या जरूरतमंदों के अंतिम संस्कार की. जहां एक ओर स्थिति की भयावहता रही तो वहीं मानवीयता की नई-नई मिसालें भी कायम हुईं।
ऐसे दौर में कला संगीत और साहित्य भी उम्मीद के दरवाजे खोलते हैं …सकारात्मकता का उजाला यहीं से फूटता है ,संभावनाओं के नए क्षितिज बनते हैं। बड़े रचनाकार प्रकाश दीक्षित की कालजयी पंक्तियां याद आती हैं-
जिन्दगी के पत्थरों पर दूब रोपी
हम सृजन का वेग हैं आकार हैं हम
शीश ताने ही रहो सम्भावनाओं
सब प्रयोगों के लिए आधार हैं हम
मनुष्य के अदम्य साहस और असीम क्षमताओं को झकझोर कर जगा देने के लिए किसी कठिन समय में प्रकाश जी की लिखी गई ये अमर पंक्तियां कितनी प्रेरक हैं। कोई भी सृजनकर्ता इंसानी समाज का हिस्सा होता है ,सामाजिक परिस्थितियों का असर उसके ऊपर भी होता है,उसका भी मन अवसाद से घिरता है लेकिन वो फिर अपनी पूरी ऊर्जा के साथ कलम उठा लेता है और ऐसी पंक्तियां दे जाता है जो रहती दुनिया तक मनुष्य को प्रेरित करती रहती हैं और नई ऊर्जा से भरती रहती हैं । समय के साथ-साथ ये क्रम चलता रहता है ।चुनौतियां आती रहती हैं लेकिन उन चुनौतियों में से ही रास्ता तलाश करना उन अंधेरों में उजाले की किरण बनना ही सच्ची रचनाधर्मिता है। इसी दौरान और इसी मनस्थिति में लिखी गई मेरी गजल के कुछ शेर हाजिर हैं ।
खुद से मिलने के मौके चुराते रहो
जश्न तनहाइयों का मनाते रहो
रौनकें सब की सब अपने अंदर ही हैं
अपने अंदर ही मेला लगाते रहो
काम कोई भी दानिश नहीं है अगर
ख़ुद को कर लो खफा,फिर मनाते रहो
कविता की वाचिक परंपरा भारतीय संस्कारों की देन है , इसी माध्यम से इसका प्रसार और इसका प्रभाव स्थापित होता रहा है । अधिकतम बड़ी किताबें चाहे वो वेद हों गीता हो या अन्य ….सब बोली हुई हैं जिन्हें बाद में कलमबद्ध किया गया,लेकिन आज जिस तरह के हालात हैं,जिस तरह के अत्यंत सीमित संसाधन और सम्भावनाएं हैं उसमें भी सृजनधर्मी कुछ न कुछ ऐसा रच रहे हैं और जनमानस तक अनेक माध्यमों से पहुंचा रहे हैं जो सब रास्ते बंद होने के बाद भी नए रास्तों का पता बताती रचनायें हैं –
सूर्य पर विश्वास रखना
मानते हैं तम घना है।
हौसला भी अनमना है।।
जीतना यदि चाहते हो।
जीतने की आस रखना।
सूर्य पर विश्वास रखना।।
सुरेंद्र सार्थक
जो किसी बुझते हुए दीपक को पल भर रोशनी दे
जो किसी मृत स्वप्न को झंकृत करे और रागिनी दे
जो किसी की वेदना को हाथ भर आकाश दे दे
जो किसी मृतप्राय के सम्मुख क्षणिक विश्वास दे दे
ओ कवि लेकर कलम को
ऐसे कुछ संवाद लिख दे
चाहे मेरे सामने या चाहे मेरे बाद लिख दे ।
अमन मुसाफिर
थम गया संसार सारा
हो गया ओझल किनारा
सांस डर कर ले रहे हैं
विष घुला है हर नज़ारा
किन्तु हम ख़ुद को पुन:
सुकरात कर देंगे
फिर नई शुरुआत कर लेंगे
चिराग जैन
कैसी प्रेरक पंक्तियाँ हैं ये, लोगों को जोडऩे और उन्हें उनकी शक्ति को याद दिलाने की यही ताकत कविता को भाषा में इतना बड़ा दर्ज़ा देती है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता जिसके मानस पर किसी-न-किसी तरह की कविता की छाप न पड़ी हो। हर भाषा में कविता को विशेष स्थान इसीलिए मिला हुआ है क्योंकि कविता शब्दों के अर्थ में बंधती नहीं है। कविता वह भी कह सकती है जो शब्द न कह पाएँ।
सदी की बड़ी हस्तियों में से एक, हर वक्त में प्रासंगिक रहने वाले शायर निदा फाजली भी याद आते हैं –
उठ के कपड़े बदल,घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन, आज के बाद कल जो हुआ सो हुआ.
और समय के साथ हमें फिर उठ खड़े होना है अपनी बिखरी हुई समस्त ऊर्जा और चेतना को समेटते हुए…समय की शिला पर एक नई इबारत लिखने के लिए …शुभ,सुंदर और प्रिय के सृजन के लिए.यही हमारा इतिहास है और यही हमारी विरासत।