मध्य प्रदेश में 476 जजों की कमी, देशभर की अदालतों में 4.70 करोड़ मामले लंबित: सरकार

 

नई दिल्लीः देश में लगभग सभी अदालतों में जजों की कमी के बीच विभिन्न अदालतों में 4.70 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से 70,154 मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं. केंद्र सरकार ने लोकसभा में इसकी जानकारी दी.

इस संबंध में झारखंड के लोहरदगा से भाजपा सांसद सुदर्शन भगत ने तीन भागों में सरकार से सवाल किया था कि क्या देश की सभी अदालतों में जजों की कमी है?

इसके साथ ही जजों की कमी का राज्यवार ब्योरा मांगा गया था और अगर जजों की कमी नहीं है तो जजों द्वारा मामलों की सुनवाई में देरी की वजह से कितने मामले लंबित पड़े हैं?

केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने लिखित जवाब में कहा कि विभिन्न जिला और इसकी अधीनस्थ अदालतों में 4,10,47,976 मामले लंबित हैं.

इस साल 21 मार्च तक 25 उच्च न्यायालयों में 58,94,060 मामले लंबित हैं.

जवाब में कहा गया कि नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड पर अरुणाचल प्रदेश, लक्षद्वीप और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के आंकड़े उपलब्ध नहीं है.

रिजीजू ने कहा, देशभर में कुल लंबित मामलों की संख्या 4.70 करोड़ है.

जहां तक अदालतों में जजों के खाली पड़े पदों का सवाल है तो देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों के उच्च न्यायालयों में सबसे अधिक पद खाली पड़े हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थायी और अतिरिक्त पदों पर सर्वाधिक 67 रिक्तियां हैं.

इसके बाद बॉम्बे हाईकोर्ट में 36, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में 36, कलकत्ता हाईकोर्ट में 33, पटना में 28 और दिल्ली में 27 पद खाली पड़े हैं. जिन हाईकोर्ट में एक भी रिक्तियां नहीं हैं, वे राज्य सिक्किम और त्रिपुरा है जबकि मणिपुर और गौहाटी हाईकोर्ट में एक-एक पद खाली पड़े हैं.

जजों की कमी को लेकर सरकार का राज्यवार ब्योरा उच्च न्यायालयों की स्थितियों से मेल खाता है, जहां बड़े राज्यों में अधिक पद हैं. उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 1,106 रिक्तियां हैं. इसके बाद बिहार में 569, मध्य प्रदेश में 476, गुजरात में 347 और हरियाणा में 295 रिक्तियां हैं.

रिजीजू ने कहा कि लंबित मामलों के निपटान का अधिकार क्षेत्र न्यायपालिका का है. अदालतों द्वारा विभिन्न मामलों के निपटान को लेकर कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है.

उन्होंने कहा, अदालतों में मामलों का समयबद्ध निपटान कई कारकों पर निर्भर करता है, जिसमें जजों एवं न्यायिक अधिकारियों की संख्या, अदालती स्टाफ और बुनियादी ढांचा, तथ्यों की जटिलता, साक्ष्यों की प्रकृति, हितधारकों (बार, जांचकर्ता एजेंसियां, गवाह और वादी) का सहयोग और नियम एवं प्रक्रियाओं का सही तरीके से पालन शामिल हैं.