देशभर की जेलों में पौने चार लाख क़ैदी , मप्र की जेलों में कैद हैं 3712 विचाराधीन बंदी, लोस में रखे आँकड़े हुये सार्वजनिक
भोपाल । मप्र सहित देशभर की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं। इस कारण जेलों में कैदी जानवरों की तरह ठूंसे पड़े हैं। हैरानी की बात तो यह है कि मप्र की जेलों में 3712 कैदी विचाराधीन हैं, जबकि देश की जेलों में पौने चार लाख विचाराधीन बंदी हैं। हद तो यह है कि देश में 23 हजार से अधिक विचाराधीन बंदी ऐसे हैं, जिनका गुनाह साबित होना है। इनमें कई ऐसे हैं जो 3-5 साल या उससे अधिक समय से जेल में दिन काट रहे हैं।
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा द्वारा लोकसभा में रखे गए आंकड़ों के मुताबिक देश की जेलों में 4.88 लाख कैदी बंद हैं। इनमें सजायाफ्ता कैदियों की संख्या महज 1.12 लाख ही है। 3.71 लाख यानी की 76 प्रतिशत विचाराधीन बंदी हैं। इनमें 23 हजार से अधिक ऐसे बंदी हैं, जो 3 साल से लेकर 7 व 8 साल से सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं। न तो उनका गुनाह साबित हुआ है और न ही जमानत मिली है। वहीं, जेल में बंद दो से तीन साल के बीच के विचाराधीन बंदियों की संख्या 29 हजार से अधिक है। इस मामले में उत्तरप्रदेश पहले नंबर पर है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि उन विचाराधीन आरोपियों को जमानत दी जानी चाहिए जिन्होंने अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा का आधा समय बतौर आरोपी जेल में व्यतीत कर लिया है। लेकिन लंबी प्रक्रिया और पहल की कमी से एक बार जेल में दाखिल हुए ये बंदी बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। कोरोना काल में मिली पैरोल के बाद कुछ बंदी सालों बाद घर लौटे जरूर पर अब फिर कैद में पहुंच गए हैं।
गुनाह के बारे में जानकारी कम
यह भी एक बड़ा तथ्य है कि कई विचाराधीन बंदियों को अपने गुनाह और सजा के बारे में जानकारी नहीं होती है। वजह जेलों में बंद 27 प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं और 41 फीसदी महज दसवीं तक ही पढ़े हैं। कम पढ़े-लिखे होने की वजह से उन्हें यह पता नहीं लग पाता है कि उनके खिलाफ कौन सी धाराएं लगी हैं और उन्हें कैसे राहत मिल सकती है। यही कारण है अपने लिए वकील रखने या फिर अपने लिए ज़मानत का इंतजाम करने में उन्हें मुश्किलें आती हैं।
गरीबी भी सजा से कम नहीं
एनसीआरबी के आंकड़ों में बताया गया था कि जेल में बंद होने वालों में आधी संख्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वर्ग के लोगों की है। 25 प्रतिशत दलित और इतने ही आदिवासी जेल पहुंचते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर इन वर्गों के लिए गरीबी किसी सजा से कम नहीं होती है। यही वजह है कि यह पैरवी और जमानत के लिए व्यवस्था नहीं कर पाते हैं। आलम यह है कि कई आदिवासियों के जेल में जाने के बाद सालों तक उनसे मिलने या संपर्क के लिए कोई भी आगे नहीं आता है।