900 साल पुरानी वीर आल्हा की हस्तिनापुर में गड़ी तलवार को किसान ने क्रेन से उखाड़ा, प्रशासन और संबंधित विभाग को नहीं ख़बर
राजेश शुक्ला। बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुन्देलों की बानी में, पानीदार यहाँ का घोड़ा आग यहाँ के पानी में…..
बुंदेलखंड की बीरभूम महोबा और आला ऊदल एक दूसरे के पर्याय हैं। 900 साल बीत जाने के बाद भी आला और ऊदल की कहानियाँ आज भी ग्रामीण क्षेत्र के लोग बड़े चाव से सुनते और सुनाते हैं। ग्वालियर से भी इन वीरों का गहरा नाता रहा है।ग्वालियर से क़रीब 21 किलोमीटर दूर हस्तिनापुर के एक खेत में आल्हा की कटार या तलवार गड़ी हुई थी। जिसे खेत के मालिक ने क्रेन की मदद से उखाड़कर सड़क पर रखवा दिया है। यह तलवार अब संरक्षण के लिए संबंधित विभाग का कई महीनों से इंतज़ार कर रही है। इस गाँव में ही सरकारी स्कूल के पास आल्हा के छोटे भाई ऊदल की तलवार भी गड़ी हुई है। तलवार अष्टधातु की है जिसका कहानी हम सालों से हम सुनते आ रहे हैं लेकिन संबंधित विभाग के अधिकारी बताते हैं कि यह हमारे क्षेत्र में नहीं है।
नहीं हो रहा ऐतिहासिक महत्व की तलवार का अन्वेषण
उल्लेखनीय है कि आल्हा ऊदल की तलवारें हस्तिनापुर क्षेत्र में सैकड़ों सालों से गड़ी हुई हैं।अपने आप में ऐतिहासिकता की झलक लिए यह तलवारें उस काल की याद दिलाती है जब आल्हा ऊदल ने 52 लड़ाइयां इसी तलवार से लड़ीं थीं।इतिहासकार माताप्रसाद शुक्ल ने बताया कि इस ऐतिहासिक तलवारों का संरक्षण और अन्वेषण अभी तक जिला प्रशासन और पुरातत्व विभाग नहीं कर सका है।जबकि यह बहुमूल्य है।
किसान ने ज़मीन छिन जाने के डर से निकलवाई तलवार
हस्तिनापुर गाँव के किसान महेंद्र सिंह यादव ने byline24.com को बताया कि आल्हा की तलवार जिस किसान के खेत में गड़ी हुई थी उसने ज़मीन सरकारी हो जाने के डर से क्रेन की मदद से तलवार को उखड़वा कर सड़क पर रखवा दिया।लगभग पाँच माह बीत जाने के बाद भी उक्त तलवार सड़क पर पड़ी हुई है और अपना ऐतिहासिक महत्व खोती जा रही है।मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग के अधिकारी पीसी महोबिया ने बताया कि उक्त क्षेत्र हमारे विभाग के अंतर्गत नहीं आता है।
कई गांवों के लोग करते हैं पूजा अर्चना
हस्तिनापुर समेत कई गांवों के लोग यहाँ पर समय समय पर आते हैं और आला-उदल की तलवार की पूजा अर्चना कर उनसे प्रार्थना करते हैं।गाँव के कई लोगों ने बताया कि अधिकारी आते हैं और फ़ोटो खींच कर चले जाते हैं।
यह है इतिहास में वर्णन
आल्हा और ऊदल दो भाई थे। ये बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे। कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नाम के एक कवि ने आल्हा खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की गाथा वर्णित है। इस ग्रंथ में दों वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन है। आखरी लड़ाई उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ लड़ी थी। मां शारदा माई के भक्त आल्हा आज भी करते हैं मां की पूजा और आरती।
आल्हाखण्ड में गाया जाता है कि इन दोनों भाइयों का युद्ध दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ था। पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हारना पड़ा था लेकिन इसके पश्चात आल्हा के मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने संन्यास ले लिया था। कहते हैं कि इस युद्ध में उनका भाई वीरगति को प्राप्त हो गया था। गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था। पृथ्वीराज चौहान के साथ उनकी यह आखरी लड़ाई थी।
मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी साग (हथियार) शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। मंदिर परिसर में ही तमाम ऐतिहासिक महत्व के अवशेष अभी भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान की जंग की गवाही देते हैं।