आडवाणी ने थामा था हाथ तब बची थी कुर्सी, आज आडवाणी का हाथ पकड़े दिखे मोदी
नई दिल्ली: बीजेपी के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी 94 वर्ष के हो गए। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ आडवाणी के घर पहुंचे और उनका जन्मदिन मनाया। इस दौरान पीएम मोदी हाथ पकड़कर आडवाणी को अहाते में लेकर आए। यह दृश्य उस वाकये की याद दिलाने के लिए काफी है जब नरेंद्र मोदी से गुजारत के मुख्यमंत्री की कुर्सी खिसकने को हुई तो इन्हीं लालकृष्ण आडवाणी ने उनका हाथ थामा और कुर्सी बचा ली।
2012 के बाद आने लगी रिश्तों में खटास
मोदी तब से लेकर वर्ष 2012 तक आडवाणी के लेफ्टिनेंट की भूमिका में रहे, लेकिन जैसे ही 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर नए चेहरे की चर्चा जोर पकड़ी, आडवाणी और मोदी में दूरियां बढ़ने लगीं। 20013 आते-आते दोनों के रिश्तों में तल्खी ने ऐसा रूप ले लिया कि आडवाणी ने नरेंद्र मोदी को अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के प्रस्ताव का भरपूर विरोध किया। हालांकि, 13 सितंबर 2013 को बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को आखिरकार 2014 के आम चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री पद का कैंडिडेट घोषित कर ही दिया।
10 वर्ष में उल्टा घूम गया पहिया
कितनी दिलचस्प बात है कि वर्ष 2003 में गुजरात दंगों के बाद ‘राजधर्म’ नहीं निभा पाने के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, नरेंद्र मोदी से इस्तीफा लेने पर अड़े थे। उस वक्त उनके सबसे बड़े समर्थक लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे कहा था- ऐसा मत कीजिए, बवाल हो जाएगा। 10 साल बाद 2013 में वही लालकृष्ण आडवाणी बीजेपी और आरएसएस से मिन्नत कर रहे थे कि वो अभी मोदी को पीएम कैंडिडेट नहीं बनवाएं। तब आडवाणी को जवाब मिला- अब और देरी की तो बवाल हो जाएगा।
सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि पूरा चक्र पलट गया और बीजेपी के भीष्म पितामह अपने चहेते शिष्य से ही नाराज हो गए। आडवाणी की मोदी से नाराजगी के ये पांच अहम कारण हो सकते हैं-
1. गुजरात कनेक्शन
लालकृष्ण आडवाणी इस बात से आहत रहे कि हाल में गुजरात में बीजेपी की मजबूती का सारा क्रेडिट सिर्फ नरेंद्र मोदी को दिया गया, जबकि वहां उन्होंने पार्टी को जड़ से सींचा था। दरअसल आडवाणी मोदी के मुख्यमंत्री बनने से पहले 1991 से ही गुजरात से लोकसभा सीट जीतते रहे हैं। गुजरात में पहली बार आडवाणी ने मोदी को प्रोजेक्ट किया था। ऐसे में उन्हें इस बात पर मोदी से दु:ख रहा कि मोदी ने बाद में इस बात को स्वीकार नहीं किया और सारा क्रेडिट खुद लेते रहे।
2. आडवाणी-सुषमा-मोदी
आडवाणी हाल के वर्षों में सुषमा स्वराज को अधिक तरजीह देते रहे। आडवाणी ने कई मौकों पर सुषमा को अपना उत्तराधिकारी भी संकेतों में बताया। उनके पक्ष में एक गुट भी था, लेकिन मोदी न सिर्फ सुषमा से आगे बढ़ते गए बल्कि आडवाणी के गुट में सेंध लगाते रहे। यह आडवाणी को नागवार गुजरा।
3. रथयात्रा, गुजरात और बिहार
2011 में आडवाणी ने पूरे देश में करप्शन के खिलाफ यात्रा निकाली थी। उस वक्त आई खबरों के मुताबिक मोदी इस आयोजन के खिलाफ थे। साथ ही, इसके बिहार से शुरू करने के फैसले पर भी विवाद हुआ कि यह गुजरात से शुरू होना चाहिए था। इन विवादों के बीच आडवाणी की यह यात्रा सफल नहीं रही।
4. पीएम न बन पाने का दुख
लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की हसरत कभी छिपी नहीं रही। उन्होंने इस बात से कभी इनकार नहीं किया कि वह 2014 के चुनाव में अपनी दावेदारी को वापस ले रहे हैं। इसके अलावा जेडीयू और दूसरे सहयोगी दल भी उनके पक्ष में रहे। इन सबके बीच उनको नजरअंदाज कर मोदी ने जिस तेजी से इस पद के लिए लॉबिंग की, आडवाणी की उनसे नाराजगी बढ़ती गई।
5. नहीं मिली एहसान की कीमत
लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी को जरूरत के वक्त लाइफलाइन दी, लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस रहा कि जब उन्हें मोदी के समर्थन के जरूरत पड़ी, तो वह चुप रहे। जिन्ना प्रकरण में जब आडवाणी पूरे अलग-थलग पड़े, तब भी मोदी ने एक शब्द भी नहीं बोले। वहीं, मोदी को जब आरएसएस की नजदीकी और आडवाणी के साथ में, कोई एक विकल्प चुनने का मौका आया, तो उन्होंने आरएसएस का साथ चुना।
आडवाणीः उत्थान और पतन
ये वही आडवाणी हैं जिन्होंने 1984 में दो सीटों पर सिमट गई बीजेपी को रसातल से निकाल कर भारतीय राजनीति के केंद्र में पहुंचाया। इन्हीं आडवाणी ने 1998 में पहली बार बीजेपी को सत्ता के शीर्ष पर भी पहुंचाया और वाजपेयी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने। आइए आडवाणी के कैरियर ग्राफ पर एक नजर डालते हैं…
1986: पहली बार आडवाणी बीजेपी के अध्यक्ष बने। लगभग इसी वक्त देश में कुशासन और भ्रष्टाचार के चलते सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के प्रति जन असंतोष बढ़ता नजर आ रहा था। मौके को भांपकर आडवाणी ने देश में एक नई आक्रामक सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत की।
1989: कट्टर हिंदुत्व का अजेंडा आगे बढ़ाते हुए आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी ने अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन खड़ा किया। पार्टी ने बाबरी मस्जिद की विवादास्पद जगह पर राम मंदिर के निर्माण की मांग उठाकर सियासत को सुलगा दिया। इसी सिलसिले में आडवाणी ने देशभर में अपनी बहुचर्चित रथयात्रा शुरू की, लेकिन बिहार में लालू यादव सरकार ने उन्हें बीच में ही गिरफ्तार कर लिया और यात्रा अधूरी रह गई।
1991: आडवाणी की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का फायदा बीजेपी को उत्तर भारत में हुआ और आम चुनाव में बीजेपी कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी।
1992: आडवाणी की रथ यात्रा के दो बरस बाद कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी। कई दूसरे लोगों के साथ आडवाणी मुख्य अभियुक्तों में शामिल किए गए।
1996: पहली बार बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए की सरकार बनने के बाद आडवाणी देश के गृह मंत्री बनाए गए, लेकिन प्रधानमंत्री वाजपेयी की यह सरकार महज 13 दिन चल पाई।
1998-99: दोबारा एनडीए की सरकार बनने पर आडवाणी को फिर से गृह मंत्री बनाया गया और बाद में उन्हें उपप्रधानमंत्री का पद दिया गया। बीजेपी में यह अटल-आडवाणी का दौर था। हालांकि गृह मंत्री के तौर पर आडवाणी का कार्यकाल मुश्किल भरा रहा और उन्हें बाहरी आतंकी हमलों के साथ-साथ ढेरों आंतरिक उपद्रव से भी जूझना पड़ा। एनडीए ने 1999 से 2004 तक अपना कार्यकाल पूर्ण किया।
2004: बीजेपी समेत एनडीए अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजर आ रहा था। आडवाणी ने पार्टी की ओर से आक्रामक प्रचार अभियान चलाया और यहां तक दावा किया कि कांग्रेस को सौ सीटें भी नहीं आएंगी, लेकिन हुआ इसका उल्टा। बीजेपी की हार हुई और उसे एक बार फिर विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा। हार के बाद बीजेपी के ‘पुरोधा’ अटल बिहारी वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। इसी के साथ आडवाणी के हाथों में बीजेपी की कमान आ गई। आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। उन्हें पार्टी के अंदर से ही कई बगावत का सामना करना पड़ा। उनके दो करीबी- उमा भारती और मदन लाल खुराना और लंबे वक्त से प्रतिद्वंद्वी रहे मुरली मनोहर जोशी ने उनके खिलाफ खुलकर बयान दिए।
2005: आडवाणी उस वक्त बीजेपी के कई शीर्ष नेताओं के निशाने पर आए गए, जब उन्होंने अपनी चर्चित पाकिस्तान यात्रा के दौरान कराची में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जिन्ना को ‘सेक्युलर’ नेता बताया। आरएसएस को भी यह नागवार गुजरा। दबाव इतना बढ़ा कि आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा। हालांकि कुछ दिनों बाद उन्होंने इस्तीफा वापस ले लिया। दिसंबर में मुंबई में बीजेपी के रजत जयंती समारोह में आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने कहा कि आडवाणी और वाजपेयी को अब नए नेताओं के हक में रास्ता छोड़ देना चाहिए। इससे आडवाणी के आरएसएस से रिश्तों में और खटास आ गई।
2007: बीजेपी संसदीय बोर्ड ने औपचारिक तौर पर ऐलान किया कि अगले आम चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।
2009: आम चुनाव बीजेपी ने आडवाणी के नेतृत्व में ही लड़ा और आडवाणी को ‘पीएम इन वेटिंग’ कहा गया, लेकिन एक बार फिर बाजी कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए ने ही मारी। आडवाणी ने सुषमा स्वराज के हक में लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद छोड़ दिया।
2013: नरेंद्र मोदी को बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज होकर आडवाणी ने 10 जून को पार्टी के सभी अहम पदों से इस्तीफा दे दिया। आडवाणी ने कहा कि बीजेपी अब वैसी आदर्शवादी पार्टी नहीं रही, जिसकी बुनियाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने तैयार की थी। पार्टी ने हालांकि उनका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया और आडवाणी ने भी पार्टी की बात मानकर अपना फैसला वापस ले लिया। 13सितंबर, 2013 को बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को औपचारिक तौर पर अपने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। नाराज आडवाणी संसदीय बोर्ड की मीटिंग में नहीं पहुंचे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर अपनी ‘व्यथा’ व्यक्त की।
2017: जब राष्ट्रपति पद का चुनाव हुआ तो उनका नाम इस पद के संभावितों की सूची में भी नहीं रखा गया। प्रधानमंत्री पद नहीं पा सकने वाले आडवाणी को राष्ट्रपति पद दिया जा सकता था, लेकिन नरेंद्र मोदी ने उनकी जगह रामनाथ कोविंद का चयन किया।
मोदी मैजिक : टी स्टॉल से पीएम कैंडिडेट तक
1950: गुजरात के मेहसाणा जिले में जन्मे नरेंद्र मोदी अपने छह भाई-बहनों में तीसरे नंबर पर थे। मोदी ने अपने जीवन की शुरुआत अपने भाई के साथ रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान चलाने से की।
मोदी के राजनीतिक करियर की शुरुआत आरएसएस के प्रचारक के तौर पर हुई। नागपुर में शुरुआती प्रशिक्षण के बाद मोदी को संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की गुजरात यूनिट की कमान सौंपी गई।
1987: नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी जॉइन कर लिया। एक प्रभावशाली संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने वह रणनीति बनाने में सबसे अहम भूमिका निभाई जो गुजरात में बीजेपी की जीत में निर्णायक साबित हुईं। इस वक्त तक गुजरात बीजेपी में शंकर सिंघ वाघेला और केशुभाई पटेल स्थापित नेताओं में शुमार थे।
2001: केशुभाई पटेल की जगह नरेंद्र मोदी को गुजरात का सीएम नियुक्त कर दिया गया क्योंकि केशुभाई सरकार का प्रशासन नाकाम साबित हो रहा था। उस वक्त कई नेता मोदी की काबिलियत और नेतृत्व को लेकर बहुत ज्यादा आश्वस्त नजर नहीं आए थे।
2002: यह ऐसा साल था जिसने भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी नाम के राजनेता के व्यक्तित्व को परिभाषित करने का कार्य किया। फरवरी 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में भड़के भीषण साम्प्रदायिक दंगों में मुस्लिम समुदाय के हजारों लोगों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गई। मोदी सरकार पर आरोप लगा कि उनका प्रशासन मूकदर्शक बना रहा और दंगों की आग पर काबू पाने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए। यहां तक कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी मोदी को ‘राजधर्म’ का पालन करने की नसीहत दी। पीएम वाजपेयी ने मोदी को बर्खास्त करने का भी मन बना लिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ही वह व्यक्ति थे, जिनके वीटो से मोदी बच गए।
बढ़ते विरोध के बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन उसके बाद हुए असेंबली चुनाव में मोदी ने स्पष्ट बहुमत के साथ जीत दर्ज की। मोदी ने न केवल सीएम के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया बल्कि उसके बाद लगातार दो असेंबली चुनावों में भी बहुमत हासिल कर जीत की हैटट्रिक लगा दी। मोदी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि और जीत हासिल करने की क्षमता का ही असर था कि बीजेपी में उनका कद बढ़ता चला गया। यही नहीं, उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को भी बारी-बारी से हाशिए पर पहुंचाने में कामयाबी पाई।
गुजरात में मोदी का ‘विकास मॉडल’ देश ही नहीं, दुनियाभर में चर्चा का विषय बन गया। कॉर्पोरेट जगत और इंडस्ट्री की तरफ से मोदी सरकार का गुणगान, गुजरात में लाखों करोड़ रुपये का निवेश होने और प्रशासन को कुशल मैनेजर की तरह चलाने की मोदी की काबिलियत का बीजेपी ने जमकर बखान किया, वहीं कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष ने मोदी के ‘सांप्रदायिक’ चेहरे के लिए उन पर तीखे हमले किए।
2013: जुलाई में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नरेंद्र मोदी को बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का चेयरमैन नियुक्त किया। इसके साथ ही उनका अगले चुनाव के लिए पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का रास्ता साफ हो गया। वरिष्ठ पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी के कड़े विरोध को दरकिनार करते हुए 13 सितंबर 2013 को बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को आखिरकार 2014 के आम चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री पद का कैंडिडेट घोषित कर दिया। इसी के साथ यह पार्टी में मोदी के उदय और आडवाणी के राजनीतिक अवसान की उद्घोषणा बन गई।
2014: 16 मई, 2014 को लोकसभा चुनाव का परिणाम आया तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को कुल 282 सीटों पर जीत मिली। नरेंद्र मोदी के चेहर पर देश को कितना यकीन है, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 51.9% मतदाताओं ने बीजेपी को अपना वोट दिया। बीजेपी को पहली बार अपने दम केंद्र में सरकार बनाने का मौका मिला। हालांकि, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के घटक दलों को भी सरकार में शामिल किया गया।
2019: अगले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का कद और बढ़ गया। इस चुनाव में बीजेपी की सीटें बढ़कर 303 हो गईं। मोदी के पांच सालों के शासन में जनता के बीच बीजेपी की लोकप्रियता बढ़ी और कई राज्यों में चुनाव दर चुनाव पार्टी ने जीत दर्ज की और उसकी सरकारें बनती गईं। वहीं, लोकसभा में भी उसे 21 सीटों का फायदा हुआ।
साभार
20 Replies to “आडवाणी ने थामा था हाथ तब बची थी कुर्सी, आज आडवाणी का हाथ पकड़े दिखे मोदी”
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