सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि बिना किसी उकसावे के सिर्फ साझा मंशा के आधार पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 34 नहीं लगाई जा सकती। इसके लिए किसी व्यक्ति को आरोपी बनाने के लिए कोर्ट को सबूतों का विश्लेषण और मूल्यांकन करना होगा।
आईपीसी की इस धारा के तहत, जब कई लोगों मिलकर कोई आपराधिक वारदात को अंजाम देते हैं, तो सभी के सामान्य इरादे को आगे बढ़ाते हुए उनमें से प्रत्येक उस कार्य के लिए उसी तरह उत्तरदायी होता है जैसे कि यह अकेले किसी व्यक्ति द्वारा किया गया था।
जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां एक व्यक्ति अपराध करने के लिए एक सामान्य इरादा बनाने में सक्रिय भागीदार रहा हो, लेकिन वास्तव में बाद में वह इससे पीछे हट गया हो। साझा इरादे का अस्तित्व स्पष्ट रूप से साबित करना अभियोजन पक्ष का कर्तव्य है।
हालांकि, एक न्यायपालिका के तौर पर कोर्ट को आईपीसी की धारा 34 के तहत किसी व्यक्ति को आरोपी बनाने से पहले सबूतों का विश्लेषण और मूल्यांकन करना होगा। आगे की कार्रवाई के बिना केवल एक सामान्य मंशा के आधार पर व्यक्ति पर धारा-34 नहीं लगाई जा सकती है।
शीर्ष कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के 2019 के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई कर रहा था। हाई कोर्ट ने एक निचली अदालत के विचारों से सहमति व्यक्त की थी, जिसने चार आरोपियों को दोषी ठहराया था और आरोपियों को अप्रैल 2011 के एक आपराधिक मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
इसके बाद मामले में सजा पाए चार आरोपियों में से दो ने हाई कोर्ट के फैसले को शीर्ष कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट इन्हीं दो आरोपियों की याचिकाओं सहित अन्य याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। आरोपी की ओर से अदालत में पेश हुए वकील ने दलील दी थी कि निचली अदालतों ने मामले में उसके मुवक्किलों के खिलाफ आईपीसी की धारा 34 लागू करने में गलती की है।