जांच अधिकारी घटिया जांच को छुपाने के लिए आदिवासियों को हिरासत में ले लेते हैं: जस्टिस चंद्रचूड़

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सोमवार को कहा कि आजादी के बाद आज भी आदिवासी उत्पीड़न और क्रूरता के शिकार हैं और जांच अधिकारी अब भी अपनी घटिया जांच को छुपाने के लिए उन्हें हिरासत में ले लेते हैं.

जस्टिस चंद्रचूड़ 13वें बीआर आंबेडकर स्मृति व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे. इसका विषय ‘Conceptualising Marginalisation: Agency, Assertion & Personhood’ था. इसका आयोजन दिल्ली के भारतीय दलित अध्ययन संस्थान और रोजा लक्जमबर्ग स्टिफ्टुंग (Rosa Luxemburg Stiftung), दक्षिण एशिया ने किया था.

शीर्ष अदालत के न्यायाधीश ने कहा कि भले ही एक भेदभावपूर्ण कानून को न्यायालय असंवैधानिक ठहरा दे या संसद उसे निरस्त कर दे, लेकिन भेदभावपूर्ण व्यवहार फौरन नहीं बदलता है.

उन्होंने कहा कि दलित और आदिवासियों सहित हाशिये के समूह के अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक और कानूनी आदेश पर्याप्त नहीं हैं.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘ब्रिटिश राज ने आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 बनाया, जिसके तहत जनजाति, गिरोह या व्यक्तियों के वर्ग को व्यवस्थित अपराधों के लिए अधिसूचित किया गया था.’

उन्होंने कहा, ‘हमारे संविधान के लागू होने के बाद आपराधिक जनजाति अधिनियम को 1949 में निरस्त कर दिया गया और जनजातियों को गैर-अधिसूचित कर दिया गया.’

जस्टिस ने कहा, ‘जनजातियों को गैर-अधिसूचित किए जाने के लगभग 73 वर्षों के बाद भी आदिवासी अब भी उत्पीड़न और क्रूरता के शिकार होते हैं. गैर-अधिसूचित हो चुकीं जनजातियों के सदस्यों को जांच अधिकारी अपनी घटिया जांच को छुपाने के लिए हिरासत में ले लेते हैं.’

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, शीर्ष अदालत के एक फैसले का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, ‘इस अदालत ने अंकुश मारुति बनाम महाराष्ट्र राज्य में बलात्कार और हत्या के आरोप में छह आरोपियों की सजा के खिलाफ दायर एक समीक्षा याचिका की अनुमति दी.’

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, ‘निर्णय ने न्यायिक रूप से मान्यता दी है कि समाज के निचले तबके से संबंधित खानाबदोश जनजातियों के सदस्यों को आपराधिक कानून की ताकतों का उपयोग करके जांच एजेंसियों द्वारा नियमित रूप से परेशान किया जाता है.’

शीर्ष अदालत के न्यायाधीश ने कहा कि मौलिक समानता के संवैधानिक आदर्श को आगे बढ़ाने के लिए संविधान भौतिक संसाधनों के पुनर्वितरण को अनिवार्य करता है.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि आज भी हाशिये के लोगों का संस्थानों और समाज द्वारा अपमान किया जाता है.

उन्होंने कहा, ‘हाशिये के समुदायों के सदस्यों को न केवल कानून का उपयोग करके बल्कि उन प्रतिष्ठानों द्वारा भी संस्थागत रूप से अपमानित किया जा सकता है जो आगे भेदभाव और अपमान के लिए एक अनुकूल वातावरण बनाए रखते हैं. भले ही भेदभावपूर्ण कानून को न्यायालयों द्वारा असंवैधानिक माना जाता है या संसद द्वारा निरस्त किया जाता है, भेदभावपूर्ण व्यवहार तुरंत नहीं बदलता.’

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि उन्हें अक्सर आश्चर्य होता है कि क्या संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित ‘लोग’ (The People) में वे जनजातियां शामिल हैं, जिन्हें संविधान के लागू होने के समय ‘अधिसूचित जनजाति’ के रूप में मान्यता दी गई थी.

उन्होंने कहा, ‘क्या इसमें समलैंगिक शामिल हैं? क्या इसमें महिलाएं शामिल हैं? दलित समुदाय और विशेष रूप से सक्षम लोग शामिल हैं?’

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि एक एकमात्र उपाय यह है कि उन संवैधानिक आदर्शों का ईमानदारी से पालन किया जाए, जिन्हें बनाने में डॉ. आंबेडकर ने मदद की और उनका उपयोग समाज की सोच और धारणाओं के बदलने के लिए किया जाए.

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